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Shailendra Birth Anniversary: एक सुखद सपने का दुखद अंत शैलेन्द्र

1948 की उस रात को राज कपूर बहुत खुश थे. उनकी कम्पनी में एक ऐसे गीतकार ने कदम रखा था जिसका राज कपूर दिल से सम्मान करते थे. गीतकार का पहला गीत उस दिन रिकार्ड हुआ था और राज कपूर बहुत खुश थे. गीत के बोल थे....

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Shailendra Birth Anniversary: एक सुखद सपने का दुखद अंत शैलेन्द्र

1948 की उस रात को राज कपूर बहुत खुश थे. उनकी कम्पनी में एक ऐसे गीतकार ने कदम रखा था जिसका राज कपूर दिल से सम्मान करते थे. गीतकार का पहला गीत उस दिन रिकार्ड हुआ था और राज कपूर बहुत खुश थे. गीत के बोल थे.

बरसात में तुम से मिले हम सजन हमसे मिले तुम बरसात में क्या सीधी-सादी शब्द-रचना थी?

राज कपूर को विश्वास था कि यह नया गीतकार उनकी फिल्मों का एक आधार -स्तम्भ बनेगा. राज कपूर का विश्वास कभी झूठा हुआ है भला. यह गीतकार था शैलेन्द्र! शैलेन्द्र ने ‘बरसात’ के साथ जो आर.के.स्टूडियो में कदम रखा तो फिर ‘अपनी जिंदगी की अंतिम सांस तक राज कपूर का साथ निभाया. आखिर शैलेन्द्र में ऐसी क्या विशेष बात थी?

क्यों उसके गीत एक नशा बन कर जनता के दिलो-दिमाग पर छा जाते थे?

शैलेन्द्र का यह गुण था. सीधे सरल शब्दों का प्रयोग. वह जनता के गीतकार थे और उन्हीं की भाषा में गीत लिखते थे. यही कारण थे कि उनके गीत सीधे जनता की जुबान पर चढ़ जाते थे. दूसरी तरफ शैलेन्द्र के गीत फिल्म को गति प्रदान करते थे, कहानी को आगे बढ़ाते थे. ऐसा नहीं होता था कि उनकेे गीत फिल्म में पैबंद की तरह लगते हो. राज कपूर की प्रत्येक फिल्म में शैलेन्द्र का एक गीत अवश्य ऐसा होता था जो फिल्म में राज कपूर के चरित्र को खोल कर सामने रख देता था. जरा देखिये, क्या ये गीत सुन कर अंदाजा नहीं लग जाता कि फिल्म का हीरो सीधा-सादा मासूम युवक है! इन गीतों से हीरो की पूरी इमेज दर्शकों के दिमाग में बन जाती है!

मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी सिर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी. (फिल्मः श्री 420) सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी सच है दुनिया वालो कि हम है अनाड़ी (फिल्मः अनाडी) मेरा नाम राजू घराना अनाम बहती है गंगा जहां मेरा धाम फिल्मः जिस देश में गंगा बहती है, आवारा हूं, आवारा हुं या गर्दिश में या, आसमान का तारा हूं (फिल्मः आवारा) शैलेन्द्र को जनता के मनोविज्ञान की गहरी समझ थी. कब कौन-सी चीज जनता के मर्म पर असर करेगी उन्हें खूब मालूम था. जीवन के आरंभिक वर्षो में ही उन्होंने तमाम दुख झेल लिये थे. कोई मानवीय अनुभूति ऐसी नहीं थी जो उनसे अछूती बची हो. वे जनता के सुख-दुख समझते थे प्रेमिका का विरह इस गीत में कैसे झलकता हैः-

आजा रे परदेसी, मैं तो कब से खड़ी इस पार अंखियो थक गई पंथ निहार (फिल्मः मघुमति) और जब प्रेमिका सब कुछ पा जाती है कांटों से खीच के ये आंचल तोड़ के बंधन बांधी पायल आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है (फिल्म गाइड)

तो उसकी खुशी को व्यक्त करने के लिए इससे अच्छे शब्द कहां मिलेगे? निराश प्रेमी के दिल पर कैसी बीतती है, सुनिये -टूटे हुए ख्वाबों ने हमको ये सिखाया है दिल ने जिसे पाया था आंखों ने गंवाया है (फिल्मः मधुमति) शैलेन्द्र साम्यवादी धारा में विश्वास करते थे. उन्हें दिवा-स्वप्न देखने की आदत पड़ चुकी थी. सामाजिक सुधारों पर आधारित फिल्मों के गीत वे विशेष रूचि से लिखते थे. फिल्म पतिता मे उन्होने कितने ही हिट गीत लिखे. जो गीत बच्चों पर फिल्माया जानेे वाला हो, उसे लिखते समय तो शैलेन्द्र की बांछे खिल उठती थी. बच्चों में उन्हे देश का भविष्य नजर आता था. बूट-पालिश का यह गीत अपने भीतर कितना गहरा अर्थ लिए हुए है

नन्हे-मुन्ने बच्चे, तेरी मुट्ठी में क्या है? मुट्ठी में है तकदीर हमारी हमने किस्मत को वश में किया है.

शैलेन्द्र ने अधिकांश फिल्मों में शंकर-जयकिशन के लिए ही गीत लिखे हालांकि उन्हें प्रत्येक संगीतकार अपने गीतों के लिए लेना चाहता था सलिल चैधरी के लिए उन्होंने ‘मधुमति’ में गीत लिखे तो फिल्म के दासों गीत हिट गये. शैलेन्द्र को उनके गीतों पर तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला किन्तु वे पुरस्कारों की ओर से उदासीन ही रहते थे पुरस्कार मिल गया तो क्या, न मिला तो क्या वे इस तमाम प्रसिद्धि के तो अधिकारी थे मगर फिल्म- जगत  ने उन्हें जैसी विदाई दी, उसके वे कतई अधिकारी नही थे

सन् 1960 का जिक्र है. शैलेन्द्र और बासु भट्टाचार्य की उन दिनों खूब निभ रही थी दोनों ही सपने देखने के आदी जो थे. तब बासु भट्टाचार्य विमल राय प्रोडक्शन से अलग हो गये थे और एक छोटी सी कोठरी में रह रहे थे. सौ वर्ग फुट की वह कोटरी शैलेन्द्र का दूसरा घर बन गई थी, अपने अधिकांश गीत वे वहीं लिखते थे.

वहीं सपने शैलेन्द्र केे भाई देखे. दोनो ने फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की कहानी पढ़ी ‘तीसरी कसम’. दोनों को लगा कि ‘तीसरी कसम’ पर यदि फिल्म बनाई जाए तो वह गजब की आर्ट फिल्म बनेगी और दर्शकों को पसंद भी खूब आयेगी. दो दीवाने मिल बैठे थे और ख्याली पुलाव पका रहे थे.

शैलेन्द्र ने पूछा- ‘बासु दा कितना रूपया खर्च आयेगा फिल्म बनाने में?

बासु दा कितने तर्जुबेकार रहे होंगे, उसका अंदाजा उनके उत्तर से लगा लीजिये दो ढाई लाख रूपये में काम चल जाएगा. हमने कौन से चोटी के हीरो- हीरोईन लेने है कैमरामैन सुब्रत मित्रा हो जायेंगे. बस कच्ची रील का खर्च है सेट सब सस्ते और स्वाभाविक लगायेंगे. हमें कोई तड़क-भड़क थोड़े ही दिखानी है.’

यह बनिये वाला नहीं, एक लेखक का हिसाब-किताब था. उस पर शैलेन्द्र का साथ. योजना सुन कर शैलेन्द्र उछल पड़े बोले ‘एक लाख रूपया तो मेरे पास है शेष का भी कुछ न कुछ इंतजाम हो जाएगा एक लाख से तो हमारी गाडी चल निकलेगी’

‘जरुर चल निकलेगी’ और अपने उत्साह में बासु ने शैलेन्द्र को गले लगा लिया दोनों कतई भूल गए थे की एक लाख रुपए तो तीन दिन की शूटिंग में साफ हो जाते है.

राज कपूर को जब पता लगा कि शैलेन्द्र फिल्म बनाने जा रहा है तो वह चौंक गए उन्हें थोड़ा डर भी लगा कि आर.के स्टूडियो में यह बगावत कैसी? मगर राज कपूर ने फिल्म की कहानी सुनी तो वह मन ही मन खूब हँसे होंगे. ऐसी कहानी को अरब सागर में फैंक देना अधिक पसंद करते. राज कपूर को विश्वास हो गया कि आर.के बैनर को शैलेन्द्र की फिल्म से कोई खतरा नहीं तो उन्होंने स्वयं ही शैलेन्द्र की फिल्म में मुफ्त काम करने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना शैलेन्द्र की महान भूल थी जिसकी कीमत वे जीवन भर न चुका सके.

राज कपूर का प्रस्ताव लेकर शैलेन्द्र दौड़ते हुए बासु के पास पहुचे बासु सीधे सादे ग्रामीण युवक की भूमिका के लिए राज कपूर को फिट नहीं कर पा रहे थे मगर उनके दिल में यह बात जरुर थी कि राज कपूर के नाम से फिल्म चल निकलती हैं. बासु ने राज कपूर को हीरामन की भूमिका दे दी. अब राज कपूर के लिए उपयुक्त हीराबाई की तलाश होने लगी. हीरो चोटी का हैं तो हीरोइन भी चोटी की होनी चाहिए. हीरोइन वहीदा रहमान को ले लिया गया.

जिस सपने को बासु और शैलेन्द्र ने एक ‘लो बजट फिल्म’ के रूप में देखा था उसकी शुरुआत एक बड़ी फिल्म की तरह हुई. फिल्म में छोटे-मोटे सितारे होते तो वह झटपट बन कर तैयार हो जाती मगर राज कपूर के पास डेट कहां? वह तो ‘जिस देश में गंगा बहती हैं’ का ओवर-फ्लो बटोर कर ‘संगम’ का निर्माण करने में व्यस्त थे. शैलेन्द्र जब भी राज कपूर के पास डेट के लिए पहुंचते, राज कपूर का उतर होता- ‘मैं तो घर का ही आदमी हुआ. जब कहो तब आ जाऊंगा. बस जरा ‘संगम’ पूरी हो जाए’

इस ‘घर के आदमी’ के कारण ही ‘तीसरी कसम’ रुकी रही. ‘संगम’ पूरी हो गई तो उसके प्रदर्शन की तैयारी होने लगी बड़े आदमी की फिल्म थी. ‘संगम’ प्रदर्शित हो गई तो ‘मेरा नाम जोकर’ की कहानी फाइनल होने लगी. शैलेन्द्र को इस टालमटोल से बेहद नुकसान हो रहा था. उसका रोम-रोम कर्जे में फंस गया था. मगर ‘घर के आदमी’ के सामने मुंह कौन खोलता हैं? फिर राज कपूर जैसा महान कलाकार फिल्म में मुफ्त काम कर रहा था.

किसी तरह रो-पीट कर ‘तीसरी कसम’ पूरी हो गई. अब उसके प्रदर्शन का सवाल उठा. राज कपूर का वितरकांे पर कितना प्रभाव हैं सबको मालूम हैं. उन्होंने इस प्रभाव का जरा भी लाभ शैलेन्द्र को नहीं दिया वितरकों ने ‘तीसरी कसम’ देखी तो कहा-‘वह कैसी फिल्म हैं? फिल्म में फाइट कहां हैं? हीरामन कसम खा लेता है, किसी बाई को अपनी बैलगाडी में नहीं बिठाऊंगा और फिल्म खत्म इसे कौन देखेगा? एन्ड में हीरामन की जमींदार के लोगों से फाइट दिखाओ. हीरामन फाइट में घायल हो जाए हीराबाई उसे खून दे... ऐसे दो-चार सीन डालो तो फिल्म चलेगी’

शैलेन्द्र यह सुनकर भौंचक्के रह गए थे उन्हें फिल्म का डिब्बे में बंद हो जाना स्वीकार था मगर वे किसी भी तरह से फणीश्वर ‘रेणु’ की कहानी की ‘हत्या’ करने को तैयार नहीं हुए. ‘तीसरी कसम’ डिब्बे में बंद थी और राज कपूर ‘संगम’ का ओवर-फ्लो बटोर रहे थे. वह चाहते तो शैलेन्द्र को कर्जे से मुक्त करवा सकते थे. वह चाहते तो ‘तीसरी कसम’, का प्रदर्शन करवा सकते थे.

यदि वह ऐसा कर देता तो शैलेन्द्र को फिल्म बनाने की सजा कैसे मिलती? किसी तरह शैलेन्द्र ने वितरकों से बिना गारंटी का धन लिए फिल्म का प्रदर्शन करवाया प्रचार के अभाव में फिल्म फ्लाॅप हो गई शैलेन्द्र का दिल टूट गया.

हसरत जयपुरी शैलेन्द्र का जोड़ीदार रहा है, दोनों शंकर-जयकिशन के लिए गीत लिखतेे थे हसरत को इस बात से चिढ़ होती थी कि शैलेन्द्र के गीत हिट हो जाते हैं और मेरे गीत दब कर रह जाते हैं उसने भी उन्हीं दिनों शैलेन्द्र के विरुद्ध विचार विमर्श करना शुरु का दिया.

शैलेन्द्र हैरान था. वही आदमी जो कल तक उसके दोस्त होने का दम भरते थे, आज उसके जले पर नमक छिड़क रहे थे उसकी पीठ में छुरा घोंप रहे थे उसका कोमल कवि मन इस सब को सह न सका और 14 दिसम्बर को शैलेन्द्र यह संसार छोड़ गए. विधि का क्रूर हास्य देखिये, 14 दिसम्बर राज कपूर का जन्म दिन होता है.

बाद मैं ‘तीसरी कसम’ को वर्ष राष्ट्रपति स्वर्ण पदक दिया गया. अब वितरक, दर्शकों ने ‘तीसरी कसम’ को और सराहा.

इस समय ‘तीसरी कसम’ का निर्माता सुदूर स्वर्ग में बैठा सोच रहा था कि यदि इस सम्मान का एक अंश भी मुझे जीते-जी मिल जाता तो मैं पृथ्वी छोड़ता ही क्यों?

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