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'द लिपिस्टिक बॉय' जल्दी ही बिहार के सिनेमा हॉल में और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर होगी रिलीज़

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'द लिपिस्टिक बॉय' जल्दी ही बिहार के सिनेमा हॉल में और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर होगी रिलीज़

-ओमप्रकाश जी

बिहार के चंपारण में एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है खैरपोखरा (बगहा) वही पहली बार मैने लौंडा नाच देखा था। शंभूजी यादव की बेटी की शादी थी। सुनने में आया कि लालू यादव आ रहे हैं। उन दिनों लालूजी यादव बिहार में मुख्यमंत्री थे। लेकिन जिन्हें आना था वह कोई डकैत लालू यादव थे। पहली बार पता चला कि चंपारण में कोई एक और लालू यादव है, जिसकी लोकप्रियता कम से कम चंपारण में पूर्व मुख्यमंत्री लालूजी यादव से कम नहीं थी। वैसे शादी में लालू यादव नहीं आए। बाद में पुलिस की गोली से उनके मरने की खबर आई थी। वहां आए थे बिहार केसरी रामधनी पहलवान। पहली बार मैने एक पहलवान का रूतबा देखा था। काली धोती, काला कुर्ता, मा​थे पर काला टीका। साढ़े छह फुट के जवान रामधनी पहलवान। कितनी इज्जत थी उनकी समाज में कि जब वे आए तो नाच थम गया। सब तरफ एक ही आवाज थी, रामधनी आए हैं। उनसे आशीर्वाद लेने वालों की कतार लंबी थी। आठ दस निजी सुरक्षाकर्मियों के साथ ऐसा पहलवान भी पहली बार देखा था।

बात लौंडा नाच की। जैसी एक छवि थी लौंडा नाच की, उससे बहुत अलग था। आम तौर पर लौंडा को लोग किन्नर समझते हैं। ऐसा नहीं है। वह कलाकार है। पुरुष के शरीर में स्त्री को जीने वाला कलाकार। स्त्रैण पुरुष। भोजपुरी में इसके लिए 'मौगियाह' शब्द प्रचलित है। मतलब देह पुरुष का और मन स्त्री सा निर्मल। बिहार में बेगुसराय के अभिनव ठाकुर को लगा कि इस कला पर बात होनी चाहिए। जो लोग बिहार के नहीं हैं और लौंडा नाच को लेकर किसी तरह का पूर्वाग्रह लिए बैठे हैं, उन तक भी लौंडा नाच का सच पहुंचे।

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बस यह सब सोचकर अभिनव ने कैमरा उठाया और बीते कुछ सालों में मुम्बई फिल्म इन्डस्ट्री से जो पैसा कमाया उसे 'द लिपिस्टिक बॉय' पर लगा दिया। बात फिल्म की करें तो यह कहानी उदय सिंह की है, जो खुद को 'राजपूत लौंडा' कहते हैंं। इस नाच को एक कला के तौर पर उन्होंने बचाकर रखा। यह फिल्म उदय सिंह की जिन्दगी पर  गढ़ी गई कहानी है। उनके संघर्षों की कहानी। यह कहानी है, उस सामाजिक वर्जना के टूटने की जिससे आगे निकलने का काम उदय सिंह ने किया। फिल्म में उदय सिंह का किरदार पटना के मनोज पटेल ने निभाया है। फिल्म की शूटिंग पटना और नालंदा में हुई है।

फिल्म के कवर पर भिखारी ठाकुर को देखकर कई लोगों को लग सकता है कि यह फिल्म उन पर केन्द्रित है। लेकिन यह फिल्म भिखारीजी ठाकुर को उन लोगों तक लेकर जाना चाहती है, जो उन्हें नहीं जानते। लौंडा नाच को बिना भिखारीजी ठाकुर के कोई कैसे जानेगा? इस कला को प्रतिष्ठा दिलाई उन्होंने। जब भिखारीजी ठाकुर साड़ी पहन कर नाचा करते, तो कहते हैं ​कि दूर—दूर से लोग उन्हें देखने आते थे। फिल्म जल्दी ही बिहार के सिनेमा हॉल में और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होगी। रिलीज होने के बाद ​निश्चित तौर पर लौंडा नाच पर हम सब एक बार फिर से बात करेंगे। एक ऐसी कला जिसे धीरे—धीरे बिहार भी भूलने लगा है।

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