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यादों के दायरे से Mehboob Khan और Shakeel Badayuni की अनसुनी कहानी Z.A.Johar की कलम से

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By Mayapuri Desk
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यादों के दायरे से Mehboob Khan और Shakeel Badayuni की अनसुनी कहानी Z.A.Johar की कलम से

शकील बदायूंनी और महबूब खान दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र के बेजोड़ कलाकार थे. और दोनों ने संगीत सम्राट नौशाद के साथ मिलकर बेशुमार यादगार फिल्में दी हैं. जिनमें 'अन्दाज' 'आन' 'अमर' 'मदर इंडिया' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. आज की यादें उन्हीं से संबद्ध हैं.

स्व. महबूब खान सही मायनों में पढ़े-लिखे न थे किन्तु इसके बावजूद अपनी कला में बेजोड़ थे. कोई उनका हाथ नहीं पकड़ सकता था. उन्हें जो चाहिये होता था, उसके लिए वे कोई समझौता नहीं करते थे.

उन दिनों महबूब खान 'अनमोल घड़ी' बना रहे थे. उसके लिए एक गीत-'जवां है मुहब्बत हंसी है जमाना' रिकाॅर्ड किया जा रहा था. महबूब खान ने संगीत के कुछ हिस्सों पर आपत्ति उठाई. नौशाद को बहुत बुरा लगा किन्तु नौशाद बड़े शांत स्वभाव के आदमी हैं इसलिए जरा-सी आपत्ति पर भड़क जाना उनके स्वभाव में नहीं है. इसलिए उस समय वे चुप रहे और यहां-वहां आपत्तिजनक हिस्से संगीत से निकाल दिये.

उसी गाने के पिक्चराइज होने का समय आया. सैट पर संयोग से नौशाद भी मौजूद थे. नौशाद को कुछ शरारत सूझी और उन्होंने महबूब खान से आज्ञा लेकर कैमरे से शाॅट देखा और कुछ परिवर्तन सुझाए. महबूब खान भड़क गए और बोले.

'तुम शाॅट के बारे में क्या जानते हो ? तुम अपना तबला-पेटी बजाओ, नौशाद ने झुककर अदब से सलाम किया और कहा-'मैं यही आपके मुंह से सुनना चाहता था. क्योंकि फिल्म डायरेक्ट करना आपका काम है तो संगीत का डायरेक्शन देना मेरा काम है.' महबूब खान ने नौशाद की चोट को तुरन्त महसूस कर लिया और कहा-'तुमने बदला ठीक लिया है. हम भी पठान हैं, ऐसा बदला लेंगे कि उम्र भर याद करोंगे.'

महबूब खान वाकई ऐसा ही बदला लिया जिसकी वजह से नौशाद उन्हें आज भी याद करते हैं. दरअसल महबूब खान ने उसके बाद कभी भी नौशाद के संगीत में, साजों या गीतों में या उनके शब्दों में, आवाजों के चयन में कभी हस्तक्षेप नहीं किया हालांकि आज हर आदमी चाहे वह ज्ञात रखता हो या न हो, संगीत में दखल देता है. और इसी वजह से हस तरह के बने हुए गीत भी कुछ महीने या कुछ दिन याद रहते हैं. जबकि पुराने गानों की मिठास आज भी कानों में रस घोलती रहती है. वे आज उतने ही तरो-ताजा लगते हैं.

स्व. महबूब खान की तरह शकील बदायूंनी भी अपने रंग के अद्वितीय कलाकार थे. उन्होंने गीतों को अर्थ दिये बल्कि उनमें मिठास और दर्द भी भर दिया था. उनसे पहले लोग फिल्मी गानों में बस तुक भिड़ाया करते थे. उनमें गहराई नहीं होती थी. शकील बदायूंनी गजल के शायर थे. इसके बावजूद उन्होंने हिन्दी में कुछ ऐसे दर्द भरे गीतों की रचना की जिन्हें गाने वाला और सुनने वाला बरबस रोने पर विवश हो जाता था. मजे की बात यह है कि ऐसे सारे गीत उन्होंने नौशाद के संगीत निर्देशन में ही लिखे हैं.

'आवन कह गए अजहूं न आए
ली न मोरी खबरिया
थोहे भूल गये सांवरिया'

'बैजू बावरा' का एक ऐसा ही गीत था जिसे गाते-गाते लता मंगेशकर ने रोना शुरू कर दिया था.
इसी प्रकार महबूब खान की 'मदर इंडिया' के लिए शकील का एक अन्य गीत गाते हुए शमशाद बेगम ही नहीं कोरस में गाने वाली अन्य लड़कियां भी रोने लगी थीं. वह गीत था-
  'पी घर आज प्यारीं दुल्हनिया चली.
  रोएं माता-पिता उनकी दुनिया चली.

नौशाद ने जब शमशाद बेगम से रोने का कारण पूछा तो शमशाद ने बताया. 'मुझे इस वक्त ऐसा लगा जैसे मैं अपनी बेटी को विदा कर रही हूं.' सबसे अजीब वाकिया तो राष्ट्रपति भवन में पेश आया था. जहां भारत के पहले राष्ट्रपति स्व. राजेन्द्र प्रसाद जी को 'बैजू बावरा' दिखाई जा रही थी. उसके लिये शकील बदायूंनी ने एक भजन लिखा था.
'मन तरसे हरि दर्शन को आज'

जिसकी सिचुएशन थी कि स्वामी हरिदास बीमारी की वजह से श्री कृष्ण जी के दर्शन नहीं कर सकते. बैजू तब यह गीत छेड़ता है. वह बीमारी के बिस्तर से उठते हैं और उनके दर्द से बोझिल पांव खुद-ब-खुद गीत की लय पर चल पड़ते हैं. और वह कृष्ण मूर्ती को देखते हैं तो आप जानते हैं क्या हुआ ? जैसे ही पर्दे पर हरिदास स्वामी ने मूर्ती को प्रणाम किया, उधर राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने खड़े होकर प्रणाम किया. जैसे साक्षात श्रीकृष्ण के दर्शन कर रहे हों. और फिर सारा स्टाफ उनके साथ-साथ ही खड़ा हो गया.

इस संसार में दो दिल जिन्दा होते हैं वही मरते भी हैं. और जो मरते हैं, वह असल में मरते नहीं हैं क्योंकि वह यादों में जिन्दा रहते हैं.
महबूब खान और शकील बदायूंनी इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन लोगों के दिलों में सदा जिन्दा रहेंगे. जब तक महबूब की फिल्में जिन्दा हैं और फिल्मों का संगीत जिन्दा है, शकील संगीत में और संगीत प्रेमियों के दिलों में सदा जीवित रहेंगे.

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