Birthday Special: सुधा मल्होत्रा की वो मखमली आवाज ‘तुम मुझे भूल भी जाओ' को कौन भूल सकता है By Mayapuri 30 Nov 2021 in एंटरटेनमेंट New Update Follow Us शेयर ‘मोहब्बत की आंखों से अश्कें चुराकर, किसी ने फलक पे सितारे सजाए’, कुछ इसी तरह से, संगीत जगत के फलक पर कई सुमधुर स्वरों की मल्लिका को उनकी सदाबहार गीतों ने खुद नक्षत्रों की तरह हमेशा के लिए सुर आकाश में सजा दिए, जिसकी चमक दशकों युगों तक फीकी नहीं पड़ी, उन्ही नक्षत्रों में से एक है अपने समय की लोकप्रिय गायिका सुधा मल्होत्रा, जिनकी आवाज में वह धनक है जो गांव की कच्ची मिट्टी से महकती है और जिसमें भावनाओं की नाजुक लचक हमारी नस-नस में मदहोशी भर देती है। सुधा मल्होत्रा वह गायिका है जिन्होंने अपनी आवाज और सुरताल से श्रोताओं का मन मोह लिया था, जब वह सिर्फ 13 वर्ष की थी। बहुत नन्ही सी थी सुधा जब उनके मन में संगीत ने घर कर लिया था। जब पहली बार मास्टर गुलाम हैदर द्वारा आयोजित एक प्रोग्राम में सुधा को अवसर मिला दिल्ली में 30 नवंबर 1936 को जन्मी सुधा का बचपन लाहौर में बीता। बचपन से ही उन्हें संगीत का माहौल मिला। माता-पिता दोनों को संगीत का शौक था इसलिए बेटी का संगीत प्रेम देखकर पिता ने नन्ही सुधा को लाहौर के देशबंधु सेठी से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दिलवाई। सुधा स्कूल और आस पड़ोस में छोटे-मोटे कार्यक्रम में गाती थी। एक बार, वहां के रेड क्रॉस चैरिटी की तरफ से रखे, मास्टर गुलाम हैदर द्वारा आयोजित एक प्रोग्राम में सुधा को अवसर मिला। उस नन्ही सी बच्ची की सुमधुर आवाज को सुनकर गुलाम हैदर अवाक रह गए। उन्होंने उसी वक्त उसे बढ़ावा देते हुए कहा कि बड़ी होकर सुधा बहुत बड़ी गायिका बनेगी। सुधा की शोहरत लाहौर में फैलने लगी और वे आकाशवाणी लाहौर में बाल कलाकार के रूप में गाने लगी। लेकिन विभाजन के बाद पूरे परिवार को वापस दिल्ली शिफ्ट होना पड़ा। दिल्ली में भी सुधा, पंडित अमरनाथ से संगीत की शिक्षा लेने लगी। लेकिन किस्मत उनके लिए कुछ अलग ही योजनाएं बना रही थी। सुधा के पिता शिक्षक थे इसलिए जब उन्हें भोपाल के एक स्कूल में प्रिंसिपल की नौकरी मिली तो पूरे परिवार सहित वे भोपाल शिफ्ट हो गए। सुधा अपने भाईयों के साथ पिता के स्कूल में पढ़ने लगी। जब अनिल विश्वास ने सुधा को गाते सुना तो इतने प्रभावित हुए कि.... वे सबसे बड़ी थी, उनके पीछे तीन भाई थे। सुधा का ननिहाल मुंबई में था। जब भी गर्मियों की छुट्टी होती तो सुधा अक्सर मामा के घर जाया करती थी। मामा का परिवार भी संगीत प्रेमी था। उस जमाने के सुप्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास उनके मामा के पारिवारिक मित्र थे। एक बार जब सुधा ननिहाल में थी तो उनकी मुलाकात अनिल विश्वास से हो गई। जब अनिल विश्वास ने सुधा को गाते सुना तो इतने प्रभावित हुए कि अपनी एक फिल्म ‘आरजू’ में उन्हें एक गीत गाने का मौका दे दिया। ये 1950 की बात है। उनकी डेब्यू फिल्म 1950 की ‘आरजू’ नहीं बल्कि 1949 की फिल्म ‘आखिरी पैगाम’ थी... शशिकला, दिलीप कुमार, कामिनी कौशल की इस फिल्म में, सिर्फ तेरह वर्ष की उम्र में सुधा ने ‘मिला गए नैन’ गाकर हिंदी सिनेमा संगीत जगत में रातों-रात लोकप्रियता हासिल कर ली। सुधा जी के अनुसार उस गीत की सफलता के बाद, उनके पास हिंदी फिल्मों के गीतों के ऑफर्स तेजी से आने लगे। वे हर रिकॉर्डिंग के लिए भोपाल से मुंबई आ जाती थी और रिकॉर्डिंग करने के बाद वापस भोपाल चली जाती थी, लेकिन जब ऑफर्स की भरमार होने लगी तो उन्हें भोपाल छोड़कर मामा के घर मुंबई शिफ्ट हो जाना पड़ा। फिल्मी गाने की रिकॉर्डिंग के साथ-साथ उन्होंने मुंबई में भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा, पटियाला घराने के उस्ताद अब्दुल रहमान खान तथा पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरी से जारी रखी। हालांकि यह माना जाता है कि उनकी डेब्यू फिल्म ‘आरजू’ है लेकिन कई रिकॉर्ड संग्रहालयों का दावा है कि उनकी डेब्यू फिल्म 1950 की ‘आरजू’ नहीं बल्कि 1949 की फिल्म ‘आखिरी पैगाम’ है जिसमें सुधा मल्होत्रा ने उस्ताद आबिद हुसैन खान और सुशांत बनर्जी के संगीत निर्देशन में तीन गीत गाए थे। एक के बाद एक सुपरहिट गीतों के साथ उनकी तुलना लता मंगेशकर से की जाने लगी। ‘तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको’ (दीदी 1959)। इस गीत के पीछे एक दिलचस्प घटना है..... उस दौर के सभी नामचीन और धुरधंर संगीतकारों और गायकों के साथ सुधा ने अपने दस वर्षों के करियर में एक सौ पैंतीस फिल्मों में दो सौ पचास से अधिक गानें गाकर एक मिसाल कायम कर दी। उनके गीतों की बानगी देखिए, ‘मुहब्बत में ऐसे जमाने भी आए कभी रो दिए हम कभी मुस्कुराए (1951)’ कहीं भी अपना नहीं ठिकाना’, ‘मोहब्बत की धुन बेकरारों से पूछो’ (दिल ए नादान 1953), आवाज दे रहा है कोई आसमा से (गौहर 1953), ‘गंगा की रेती पे बंगला उठवाई दे’ (मिर्जा गालिब 1954) ‘घुंघट हटाए के नजरे मिलाई के’ (रंगीन रातें 1956), ‘माता ओ माता, जो तू आज होती, मालिक तेरे जहां में (अब दिल्ली दूर नहीं 1957), मेरा जला रात भर दिया (चमक चांदनी1957), सपनों का चंदा आया ( मिस्टर एक्स 1957), हम तुम्हारे हैं जरा घर से निकलकर देख लो (चलती का नाम गाड़ी 1958), ‘जाने कैसा जादू किया रे’ (परवरिश 1958), ‘देखो जी मेरा हाल, बदल गई चाल’, (सोलहवाँ साल 1958), ‘हट हट हट जारे नटखट पिया’ (स्वर्ण सुंदरी 1958), ‘सन सन सन वो चली हवा’ (कागज के फूल 1959), ‘गम की बदली में चमकता’ (कल हमारा है 1959) ‘कासे कहूँ मन की बात’ (धूल का फूल) और जो आखरी गीत तेईस वर्ष की उम्र में गाकर सुधा मल्होत्रा ने फिल्म संगीत की दुनिया को अलविदा कह दिया वो गीत था ‘तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको’ (दीदी 1959)। इस गीत के पीछे एक दिलचस्प घटना है। दरअसल साहिर लुधियानवी लिखित इस गीत को सुधा मल्होत्रा गा रही थी मुकेश के साथ जिसको संगीत देने वाले थे एन दत्ता। लेकिन अचानक एन दत्ता को हार्ट की समस्या आ गई। तब साहिर ने पेशकश की कि सुधा मल्होत्रा ही इस गीत का धुन तैयार करें और फिर जब सुधा ने इस गीत को कम्पोज किया तो वो एक यादगार गीत बन गई, लेकिन इसके बाद खूबसूरत सुधा की सिर्फ 23 वर्ष की उम्र में ही शिकागो रेडियो के मालिक मोटवानी परिवार के बेटे गिरधर मोटवानी से शादी हो गई। उस जमाने में इज्जतदार परिवार वाले लोग अपनी बहु को फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कोई काम करने की इजाजत नहीं देते थे, सो सुधा ने भी फिल्म संगीत जगत से दूरी बना ली लेकिन विदा लेने के बाद भी उनकी कई पहले रेकॉर्ड किए गए गीत 1960 के दशक में रिलीज हुई तो वो सारे गीत, एक से बढ़कर एक हिट होते गए, जैसे ‘सलामे हसरत कबूल कर लो’ (बाबर 1960), और वो यादगार, शानदार कव्वाली, ‘ये इश्क इश्क है इश्क इश्क’ (बरसात की रात1960), ‘अस्सलाम आलेकुम (कल्पना 1960), ‘ना मैं धन चाहूँ ना रत्न चाहूँ (1960), ‘कश्ती का खामोश सफर है, ‘शाम भी है तन्हाई भी’ (गर्लफ्रेंड 1960), ‘जाओजी जाओ बड़े शान के दिखाने वाले(रजिया सुल्तान 1961) वगैरह। सुधा मल्होत्रा के करियर को तराशने में अनिल विश्वास के अलावा साहिर लुधियानवी का भी बहुत सहयोग माना जाता है। लेकिन बताया जाता है कि उस समय में ऐसे लोग भी थे फिल्म संगीत जगत में जो सुधा मल्होत्रा के शानदार, चमकते करियर को कुचलने और दबाने में लगे हुए थे ताकि उन लोगों के मनपसन्द गायिका के करियर को आँच ना आए। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि सुधा मल्होत्रा की आवाज में कई गीत रेकॉर्ड किये गए लेकिन बाद में उसे किसी और बड़ी गायिका की आवाज में रिकॉर्ड किया गया और सुधा अवाक रह गई। फिल्मों से दूर होने के बाद भी उन्होने अपना रियाज जारी रखा शादी के बाद सिर्फ एक बार राजकपूर के कहने पर उन्होंने फिल्म ‘प्रेम रोग’ लिए एक गीत ‘ये प्यार था या कुछ और था’ गाया, लेकिन फिल्मों से दूर होने के बाद भी उन्होने अपना रियाज जारी रखा, छात्र छात्राओं को संगीत सिखाती रही, संगीत मंचों पर गाती रही, उनके कई एल्बम्स भी बने जिनमें जगजीत सिंह के साथ के अल्बम्स बहुत लोकप्रिय हुए। चलते चलते बता दूँ कि सुधा मल्होत्रा के वो सबसे खूबसूरत गीत श्तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको मायापुरी के एडिटर श्री पी के बजाज जी की माताश्री का फेवरेट गीत था और ‘कश्ती का खामोश सफर है, शाम भी है तन्हाई भी’ उनके पिता श्री ए पी बजाज जी (मायापुरी के संस्थापक और पूर्व संपादक) का पसंदीदा गाना था। सुलेना मजुमदार अरोड़ा #Dilip Kumar #Dhool ka phool #Muhammad rafi #sulena majumdar arora #birthday Sudha 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